भगवान् श्री पार्श्वनाथ -

 भगवान् श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर चरित्र-


प्रथम व द्वितीय भव

भगवान् पार्श्वनाथ के दस भवों का विवेचन मिलता है। पोतनपुर नगर के नरेश अरविन्द थे। उनकी रानी रतिसुंदरी थी। नरेश के पुरोहित का नाम विश्वभूति था। उसकी पत्नी अनुद्धरा थी।

पुरोहित के दो पुत्र थे- कमठ और मरुभूति। कमठ कुटिल प्रकृति का था जबकि मरुभूति भद्र प्रकृति का । यह मरुभूति पार्श्व का जीव था। कमठ व मरुभूति का विवाह क्रमशः वरूणा व वसुन्धरा के साथ हुआ। __ कमठ को परिवार का भार सौंप कर पुरोहित विश्वभूति ने दीक्षा ले ली। मरुभूति हरिश्चन्द्र आचार्य के पास श्रावक बन गया। मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा अत्यन्त रूपवती थी। कमठ ने उसे चाल में फंसा कर अपनी प्रेमिका बना लिया। एक दिन दोनों को व्यभिचार में रत देखकर मरुभूति ने राजा से शिकायत की। राजा ने कमठ को बुलाया और उसे गधे पर बिठाकर शहर में घुमाया और नगर से निष्कासित कर दिया।

कमठ क्रोधित होकर तापस बन गया। कालांतर में उसकी उग्र तपस्वी के रूप में प्रसिद्धि हुई। मरुभूति क्षमा मांगने के लिए कमठ के पास आश्रम में आया। मरुभूति को देखते ही कमठ ने क्रुद्ध होकर एक बड़ी शिला उठाकर उसके माथे पर दे मारी, जिससे वह वहीं पर ढेर हो गया। वह मरकर विन्ध्यगिरि में हथिनियों का यूथपति बना । कमठ की पत्नी वरुणा पति के बुरे कामों से शोक ग्रस्त होकर मरी और वह उसी अटवी में यूथपति की प्रिय हथिनी बनी।

तृतीय भव

पोतनपुर नरेश अरविन्द ने अपने पुत्र महेन्द्र को राज्य भार देकर दीक्षा स्वीकार की। विचरते-विचरते मुनि अरविंद विन्ध्य अटवी में पहुंचे और कायोत्सर्ग में लीन हो गये। उस समय वह हाथी अपनी हथिनियों के साथ सरोवर में जल क्रीड़ा करके निकला । अजनबी व्यक्ति को देखकर हाथी मुनि पर झपटा पर सहसा उनके पास आकर रुक गया। मुनि के प्रखर आभामंडल के प्रभाव से उसकी क्रूरता समाप्त हो गई और वह मुनि को एकटक देखने लगा।

अवधिज्ञान से उसके पूर्व भव को जानकर मुनि ने उसे संबोधित किया। हाथी के पास जो हथिनी खड़ी थी, वह पूर्व भव में कमठ की पत्नी वरुणा थी। दोनों को जाति स्मरण ज्ञान हो गया। हाथी अब श्रावक बन गया । यथा संभव वह सूखी घास व पत्ते खाता। शुष्क आहार से उसका शरीर क्षीण हो गया।

एक दिन पानी पीने के लिए सरोवर में गया। वहां वह दलदल में फंस गया। प्रयत्न करने पर भी वह निकल नहीं पाया। उधर कमठ के द्वारा अपने भाई की हत्या करने से आश्रम के सारे तापस नाराज हो गये और उसे निकाल दिया। वह मरकर कुक्कुट सर्प बना। वह सर्प वहां पहुंचा और हाथी को जहरीला डंक मारा। हाथी के शरीर में जहर व्याप गया। समभाव पूर्वक आयु पूर्ण कर हाथी आठवें सहस्रार देवलोक में महर्द्धिक देव बना । 

वरुणा का जीव हथिनी भी मृत्यु पाकर दूसरे देवलोक में देवी बनी। कमठ का जीव मरकर पांचवीं नरक में नैरयिक बना। 

चौथा व पांचवां भव 

पूर्व विदेह के सुकच्छ विजय में तिलका नगरी थी। उसमें विद्युत्वेग विद्याधर राज्य करता था। उसकी रानी कनक तिलका थी। मरुभूति (पार्श्व का जीव) का जीव आठवें देवलोक से च्यवकर कनक तिलका के गर्भ में पुत्र रूप में जन्मा। नाम रखा किरणवेग। युवा होने पर पद्मावती आदि अनेक राजकन्याओं के साथ उसका विवाह हुआ। पिता की दीक्षा के बाद वह राजा बन गया। किरणवेग ने भी कालान्तर में अपने पुत्र किरणतेज को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण की।

मुनि किरणवेग एक बार हिमगिरि पर्वत की गुफा में ध्यान कर रहे थे। जिस कुक्कुट सर्प ने हाथी को काटा था वही पांचवीं धूमप्रभा नरक से निकल कर उसी पर्वत क्षेत्र में विशालकाय अजगर बन गया। घूमता हुआ ज्योंही वहां आया और मुनि किरणवेग को देखा, उसका पूर्व वैर जागृत हो गया। उसने तत्काल मुनि को निगल लिया। समभाव से अपना आयुष्य संपूर्ण कर मुनि किरणवेग बारहवें अच्युत स्वर्ग में देव बने । अजगर भी मरकर छठी तमः प्रभा नरक में उत्पन्न हुआ। (महाविदेह क्षेत्र का यह एक आश्चर्य हुआ। नियम यह है कि अजगर आदि उर परिसर्प जाति के जीव पांचवीं नरक तक उत्पन्न होते हैं)

छठा एवं सातवां भव

जंबू द्वीप के पश्चिम महाविदेह की सुकच्छ विजय के अश्वपुर नगर में राजा वज्रवीर्य व महारानी लक्ष्मीवती के किरणवेग मुनि का जीव वज्रनाभ नामक पुत्र हुआ। युवावस्था में विवाह किया और कालांतर में राजा बने । पुत्र चक्रायुध को राज्य देकर वज्रनाभ ने मुनि क्षेमंकर के पास दीक्षा अंगीकार की।

अजगर का जीव नरक से निकल कर ज्वलन गिरि के भयंकर जंगल में कुरंग नाम का भील हुआ। स्वभाव से वह बड़ा क्रूर था। जंगल के वन्य प्राणियों के साथ वह अत्यन्त क्रूरता पूर्वक व्यवहार करता था।

घूमते विचरते मुनि वज्रनाभ उस ज्वलनगिरि जंगल में पहुंचे। एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ मुनि को देख कर कुरंग का वैर जाग उठा । तत्काल धनुष उठाया और बाण चढ़ाकर मुनि पर चलाया। मुनि का प्राणांत हो गया। वे ग्रैवेयक में अहमिन्द्र बने । जीवन भर हिंसक प्रवृत्तियों में रत रहने के बाद वह भील सातवीं नरक का नैरयिक बना।

तीर्थंकर गोत्र का बंध

जंबू द्वीप के पूर्व महाविदेह में पुराणपुर के राजा कुलिसबाहु की धर्मपत्नी सुदर्शना को एकदा रात्रि में चौदह स्वप्न आये। महारानी जागृत होते ही रोमांचित हो उठी। राजा को जगाकर उसने सारा घटना क्रम बतलाया। हर्ष विभोर राजा ने कहा-'रानी ! हमें तो प्रतीक्षा केवल पुत्र की थी, किन्तु हमारे राजमहल में तो कोई इतिहास पुरुष पैदा होने वाला है। सचमुच तेरी कुक्षि पवित्र हैं इस संतान से हम विश्वविश्रुत हो जायेंगे। रात्रि का शेष समय अब धर्म-जागरण में पूरा करो, किसी दुःस्वप्न से स्वप्न फल नष्ट न हो जाये ।'

गर्भकाल पूरा होने पर पुत्र का जन्म हुआ। राजा ने जन्मोत्सव किया तथा पुत्र का नाम स्वर्णबाहु रखा। स्वर्णबाहु जब पढ़-लिखकर तैयार हुआ तब राजा कुलिसबाहु ने उसको आदेश दिया- अब तुम्हें थोड़ा प्रशासन का अनुभव भी प्राप्त करना चाहिए। इस पर राजकुमार प्रतिदिन राजकार्य में अपना समय लगाने लगा। 

एक बार स्वर्णबाहु अश्व पर बैठकर घूमने गया। अश्व बेकाबू हो गया। वह कुमार को गहन जंगलों में ले गया। गाल्व ऋषि के आश्रम के पास घोड़ा थक कर ठहर गया। कुमार उतरा, आसपास घूमने लगा। उसने आश्रम के निकट एक लताकुंज में कुछ कन्याओं को क्रीड़ा करते हुए देखा। उनमें एक कन्या विशेष रूपवती एवं लावण्यवती थी। उसका नाम पद्मा था। देखते ही कुमार उस सुन्दरी पर आसक्त हो गया। वह उसके रूप को टकटकी लगाकर देखने लगा।

कन्या के ललाट पर चंदन आदि विशेष सुगंधित द्रव्यों का विलेपन किया हुआ था। उसकी गंध से आकर्षित होकर पास के झुरमुटों में से भ्रमरों का झुण्ड कन्या पर मंडराने लगा। कन्या के कई बार हाथ से दूर करने पर भी भ्रमर ललाट पर आ-आकर गिर रहे थे। सहसा भयत्रस्त कन्या चिल्लाई, शेष लड़कियां भी भयभीत हो गई। कुमार ने अवसर देखकर अपने उत्तरीय से भंवरों को हटाया । कुमार द्वारा अयाचित सहायता करने से सभी कन्यायें उसकी ओर आकर्षित हुई, परिचय पूछा। कुमार ने अपना नाम तथा परिचय दिया। परिचय पाकर सभी प्रफुल्लित हो उठी। उनमें से एक युवती बोली-“राजकुंवर ! हम धन्य हैं । आज हमें जिनकी प्रतीक्षा थी, वे हमें मिल गये हैं। आज ही प्रातः राजमाता रत्नावली के पूछने पर गाल्व ऋषि ने कहा था- पद्मा भाग्यशालिनी है, आज स्वर्णबाहु नामक राजकुमार आयेगा और वही इनका पति होगा। स्वर्णबाहु साधारण राजकुमार नहीं है, कुछ समय में चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा ।'

राजकुमार को कन्या का परिचय देती हुई युवती बोली- 'यह राजा खेचरेन्द्र की पुत्री पद्मा है, हम सब इनकी सहेलियां हैं। राजा के शरीरांत के पश्चात् पद्मा की सुरक्षा की दृष्टि से महारानी आश्रम में रहती हैं। वह यह सब बता ही रही थी कि इतने में गाल्व ऋषि और रानी रत्नावली वहीं आ गए। उन्होंने आग्रहपूर्वक कुंवर के साथ राजकुमारी पद्मा का गंधर्व विवाह कर दिया ।

पीछे से सेना के सैनिक कुमार को खोजते खोजते वहां आ पहुंचे। कुमार को वहां पत्नी सहित देखकर वे विस्मित हो उठे ।

स्वर्णबाहु अपनी पत्नी पद्मा को लेकर अपने नगर पहुंचा। राजा कुलिसबाहु भी पुत्रवधू को देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए । विवाह के उत्सव के साथ उन्होंने पुत्र का राज्याभिषेक भी कर दिया। राजा स्वयं साधना पथ पर अग्रसर हो गये ।

कालान्तर में स्वर्णबाहु की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। उससे सभी देश विजित कर वे सार्वभौम चक्रवर्ती बने । सुदीर्घकाल तक राज्य का संचालन करते रहे। एकदा वे तीर्थंकर जगन्नाथ के समवसरण में दर्शनार्थ गये । समवसरण में प्रवेश करते ही उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया। अपना पूर्वभव देखते ही उन्होंने विरक्त होकर पुत्र को राज्य सौंपा तथा स्वयं जिन चरणों में दीक्षित होकर साधनामय जीवन बिताने लगे ।

उग्र तपस्या तथा ध्यान साधना से उन्होंने महान् कर्म-निर्जरा की । तीर्थंकर गोत्र का बन्ध किया। एक बार वे जंगल में कायोत्सर्ग कर रहे थे । अनेक योनियों में भटकता हुआ कुरंग भील का जीव सिंह बना । मुनि को देखते ही क्रुद्ध होकर वह उन पर झपटा। मुनि ने अपना अन्त समय निकट देखकर अनशन कर लिया तथा समाधिपूर्वक मरण प्राप्त कर महाप्रभ विमान में सर्वाधिक ऋद्धि वाले देव बने ।

जन्म

परम सुखमय देवायु भोगकर वे इसी भरत क्षेत्र की वाराणसी के नरेश अश्वसेन की महारानी वामादेवी की पवित्र कुक्षि में अवतरित हुए। चौदह महास्वप्नों से सभी जान गये कि हमारे राज्य में तीर्थंकर पैदा होंगे। सर्वत्र हर्ष का वातावरण छा गया। सब प्रसव की प्रतीक्षा करन

लगे ।गर्भकाल पूरा होने पर पौष कृष्णा दशमी की मध्य रात्रि में भगवान् का सुखद प्रसव हुआ। देवेन्द्रों के उत्सव के बाद राजा अश्वसेन ने राज्य भर में जन्मोत्सव का विशेष आयोजन किया । पुत्र जन्म की खुशी का लाभ राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को मिला। उत्सव के दिनों में कर लगान आदि सर्वथा समाप्त कर दिये गये ।बंदी-गृह खाली कर दिये गये और याचकों को अयाचक बना दिया गया।

नाम के दिन विराट् प्रीतिभोज रखा गया । नाम देने की चर्चा में राजा अश्वसेन ने कहा- 'इसके गर्भकाल में एक बार मैं रानी के साथ उपवन में गया। वहां अंधेरी रात्रि में एक कालिन्दर सर्प आ निकला। काली रात और काला नाग, कैसे दृष्टिगत हो? फिर भी पार्श्व में चलता हुआ सर्प रानी को दिखाई दे गया। वह मुझे जगाकर वहां से अन्यत्र ले गई तभी मैं जीवित बच सका। मेरी दृष्टि में यह गर्भ का ही प्रभाव था, अतः बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा जाये। सभी ने बालक को इसी नाम से पुकारा।

विवाह

तारुण्य में प्रवेश करते ही पार्श्वकुमार के सुगठित शरीर में अपूर्व सौंदर्य निखर आया। उनके सौन्दर्य की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई। ___ कुशस्थलपुर नरेश प्रसेनजित की पुत्री राजकुमारी प्रभावती ने पार्श्वकुमार के रूप-सौंदर्य का बखान सुनकर मन ही मन प्रतिज्ञा कर ली कि मेरे इस जन्म के पति पार्श्वकुमार ही हैं। विश्व के शेष युवक मेरे भाई के समान है। माता-पिता भी इस प्रतिज्ञा को सुनकर प्रसन्न हुए। वे जल्दी ही अपने मंत्री को वाराणसी भेजने वाले थे कि उन्हीं दिनों कलिंग का युवा नरेश यवन प्रभावती के सौंदर्य की चर्चा सुनकर उससे विवाह के लिए आतुर हो उठा। किन्तु जब उसे प्रभावती की प्रतिज्ञा का पता चला तो रुष्ट होकर बोला- कौन होता है पार्श्वकुमार ? मेरे होते हुए प्रभावती से कोई भी विवाह नहीं कर सकता। उसने तत्काल ससैन्य कुशस्थलपुर को घेर लिया तथा राजा प्रसेनजित से कहलवाया-या तो प्रभावती को दे दो या फिर युद्ध करो।

प्रसेनजित धर्मसंकट में पड़ गया। कन्या की इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह कैसे किया जाए? युद्ध करना भी आसान नहीं है। प्रसेनजित ने एक दूत वाराणसी भेजा तथा राजा अश्वसेन के समक्ष सारी स्थिति रखी। दूत से जानकारी मिलने पर अश्वसेन ने क्रुद्ध होकर सेना को तैयार होने का आदेश दे दिया। पार्श्वकुमार भी रणभेरी सुनकर पिताजी के पास आये और स्वयं के युद्ध में जाने की इच्छा प्रकट की। अश्वसेन ने पुत्र का सामर्थ्य देखकर सहर्ष उसे जाने की अनुमति दे दी। इधर शक्रेन्द्र ने अपने सारथी को शस्त्र आदि से सज्जित रथ देकर पार्श्वकुमार की सेवा में भेजा । देव-सारथी ने उपस्थित होकर पार्श्व को नमस्कार किया और इंद्र द्वारा भेजे गये रथ पर बैठकर युद्ध में पधारने की प्रार्थना की। पार्श्वकुमार उसी रथ में बैठकर गगन मार्ग से कुशस्थलपुर की तरफ चले । चतुरंगिणी संग उनके पीछे-पीछे जमीन पर चल रही थी।

वाराणसी से प्रस्थान करते ही पार्श्वकुमार ने एक दूत यवनराज के पास भेजा।

उसने जाकर यवनराज से कहा- 'राजन् ! परम कृपालु देवेन्द्र पूज्य पार्श्वकुमार ने आपसे कहलवाया है कि कुशस्थलपुर नरेश ने अश्वसेन राजा की शरण ग्रहण की है; अतः कुशस्थलपुर का घेरा खत्म करो, अन्यथा आपकी कुशल नहीं है ।' उत्तेजित यवन राजा ने प्रत्युत्तर में दूत से कहा- 'ओ दूत ! तुम्हारे दूधमुंहे पार्श्वकुमार से कहो कि वह इस युद्धाग्नि से दूर रहे अन्यथा असमय में ही मारा जाएगा।'

दूत लौट गया । पार्श्वकुमार ने उसे दुबारा भेजा । वापिस जाकर उसने वही बात यवन राजा से कही। दूत की बात सुनकर पास में बैठे कुछ दरबारी उत्तेजित हो उठे, किन्तु वृद्ध मंत्री ने उन्हें शांत करते हुए कहा - 'पार्श्वकुमार की महिमा हम अन्य सूत्रों से भी सुन चुके हैं। देवेंद्र उनकी सेवा करते हैं, फिर जानबूझकर हम पर्वत से क्यों टकरायें ? देवों को जीत सकें, यह हमारे लिए सम्भव नहीं हैं। हमें अपनी सेना और इज्जत को नहीं गंवाना चाहिए।' यवन राजा को यह बात जंच गई। देवेन्द्र द्वारा प्रदत्त गगनगामी रथ का भी उस पर बहुत प्रभाव पड़ा। उसने तुरन्त युद्ध का विचार त्याग दिया और पार्श्व के सम्मुख जाकर सेवा साधने लगा ।

राजा प्रसेनजित ने जब सेना से मुक्त नगर को देखा तो वह हर्ष विभोर हो उठा। उसने राजकुमार पार्श्व की अगवानी की तथा नम्रतापूर्वक प्रार्थना की - "राजकुमार ! राज्य का संकट तुमने समाप्त किया है तो फिर प्रभावती की इच्छा भी पूरी करो। इससे विवाह करके इसकी प्रतिज्ञा भी अब आप ही पूरी कर सकते हैं।"

पार्श्वकुमार ने मधुरता से कहा- 'मुझे आपके राज्य का संकट समाप्त करना था, कर दिया। शादी के लिए मैं नहीं आया अतः उसके बारे में कैसे सोच सकता हूं ?' पार्श्वकुमार ने वाराणसी की ओर प्रास्थान कर दिया, साथ में यवनराज व प्रसेनजित दोनों राजा भी थे। वहां जाकर प्रसेनजित ने महाराज अश्वसेन से आग्रह किया। अश्वसेन ने कहा- " मैं भी चाहता हूं कि यह शादी करे, किन्तु यह इतना विरक्त है कि कह ही नहीं सकता। किसी भी समय कोई कदम उठा सकता है। फिर भी प्रभावती की प्रतिज्ञा तो पूर्ण करनी ही है ।

राजा ने पार्श्वकुमार को किसी तरह से समझा-बुझाकर उनका विवाह कर दिया । पिता के आग्रह से उन्होंने शादी तो की, किन्तु राजा का पद स्वीकार नहीं किया ।

नाग का उद्धार

पार्श्वकुमार एक बार महल से नगर का निरीक्षण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि नागरिकों की अपार भीड़ एक ही दिशा में जा रही है। अनुचर से पता लगा - उद्यान में कमठ नामक एक घोर तपस्वी आये हुए हैं। पंचाग्नि तपते है l

उन्हीं के दर्शनार्थ जा रहे हैं। कुतूहलवश पार्श्वकुमार भी वहां गये । अग्नि ज्वाला आकाश को छू रही थी, बड़े-बड़े लक्कड़ जल रहे थे। पार्श्व ने अवधिज्ञान से जलते हुए लकड़ों में एक नाग-दम्पती को देखा। उन्होंने तत्काल तपस्वी से कहा धर्म तो अहिंसा में है, अहिंसा विहीन धर्म कैसा ? तुम जो पंचाग्नि तप रहे हो इसमें तो एक नाग और नागिनी जल रहे हैं। तपस्वी के प्रतिकार करने पर पार्श्व ने लक्कड़ को चिरवाया। उसमें से जलते हुए नाग दम्पती बाहर आकर तड़फड़ाने लगे। पार्श्व ने उन्हें नमस्कार महामंत्र सुनवाया तथा तपस्वी पर क्रोध नहीं करने की सलाह दी। उसी समय दोनों के प्राण छूट गये। मरकर वे नागकुमार देवों के इन्द्र व इन्द्राणी- धरणेन्द्र व पद्मावती के नाम से उत्पन्न हुए।

तापस का प्रभाव घट गया। चारों ओर उसका तिरस्कार होने लगा। उसने क्रुद्ध होकर अनशन कर लिया। मरकर वह मेघमाली देवता बना।

दीक्षा

भोगावली कर्मों के परिपाक की परिसमाप्ति पर भगवान् पार्श्व दीक्षा के लिये उद्यत बने । लोकांतिक देवों ने आकर उनसे जन-कल्याण के लिए निवेदन किया। वर्षीदान देकर पौष कृष्णा एकादशी के दिन भगवान् ने सौ व्यक्तियों के साथ वाराणसी के आश्रमपद उद्यान में पंचमुष्ठि लोच किया। देव और मनुष्यों की भारी भीड़ के बीच सावद्य योगों का सर्वथा त्याग किया। उस दिन प्रभु के अट्ठम तप (तेला) था। दूसरे दिन उद्यान से विहार कर कोपकटक सन्निवेश में पधारे, वहां धन्य गाथापति के घर पर परमान्न से पारणा किया। देवों ने देव-दुंदुभि द्वारा दानका महत्त्व बताया ।

उपसर्ग

भगवान् अब वैदेह बनकर विचरने लगे । अभिग्रहयुक्त साधना में संलग्न हुए । विचरते-विचरते वे शिवपुरी नगरी में पधारे। वहां कोशावन में ध्यानस्थ खड़े हो गये। कुछ समय बाद प्रभु वहां से विहार कर आगे तापसाश्रम में पहुंचे तथा वहीं पर वट वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा में खड़े हो गये । इधर 'कमठ' तापस ने देव होने के बाद अवधि-दर्शन से भगवान् पार्श्व को देखा। देखते ही पूर्व जन्म का वैर जाग पड़ा । भगवान् को कष्ट देने के लिए वहां आ पहुंचा। पहले तो उसने शेर, चीता, व्याघ्र, विषधर आदि के रूप बनाकर भगवान् कष्ट दिये । किन्तु प्रभु मेरु की भांति अडोल बने रहे। अपनी विफलता से देव और अधिक क्रुद्ध हो उठा। उसने मेघ की विकुर्वणा की । चारों और घनघोर घटाएं छाने लगीं। देखते-देखते मुसलाधार पानी पड़ने लगा। बढ़ता - बढ़ता वह घुटने, कमर छाती को पार करता हुआ नासाग्र तक पहुंच गया। फिर भी प्रभु अडोल थे। तभी धरणेन्द्र का आसन कंपित हुआ । अवधि ज्ञान से उसने भगवान् को पानी में खड़े देखा। सेवा के लिए तत्काल दौड़ आया । वन्दन करके उसने प्रभु के पैरों के नीचे एक विशाल नाल वाला पद्म (कमल) बनाया। स्वयं ने सात फणों का सर्प बन कर भगवान् के ऊपर छत्री कर दी। प्रभु के तो समभाव था, न कमठ पर रोष और न धरणेन्द्र पर अनुराग । कमठासुर देव, फिर भी वारिश करता रहा । धरणेन्द्र ने फटकार कर कमठ से कहा- रे दुष्ट ! अब भी तू अपनी धृष्टता नहीं छोड़ता ? प्रभु तो समता में लीन हैं ओर तू अधमता के गर्त में गिरता ही जा रहा है !"

धरणेन्द्र की फटकार से कमठ भयभीत हुआ । अपनी माया समेट कर प्रभु से क्षमायाचना करता हुआ चला

गया । उपसर्ग शांत होने पर धरणेन्द्र भी भगवान् की स्तुति कर लौट गया।

केवल ज्ञान

भगवान् ने तयासी (83 )रातें इसी प्रकार अभिग्रह और ध्यान में बिताई। चौरासीवें दिन उन्होंने आश्रमपद उद्यान में धातकी वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुये क्षपक श्रेणी ली । घातिक-कर्मों को क्षय कर केवलत्व को प्राप्त किया ।

देवेन्द्र ने केवल - महोत्सव किया। समवसरण की रचना की । वाराणसी के हजारों लोग सर्वज्ञ भगवान् के दर्शनार्थ आ पहुंचे। प्रभु ने प्रवचन दिया। उनके प्रथम प्रवचन में ही तीर्थ की स्थापना हो गई । अनेक व्यक्तियों ने आगार व अणगार धर्म को स्वीकार किया। 

चातुर्याम धर्म भगवान् पार्श्वनाथ तो इसके अंतिम निरूपक थे। इसके पश्चात् भगवान् महावीर ने पांच महाव्रत धर्म की व्याख्या दी थी, अतः पार्श्वनाथ का धर्म 'चातुर्याम-धर्म' के नाम से प्रसिद्ध हो गया । चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर पांच महाव्रत रूप संयम धर्म का प्रवर्तन करते हैं। शेष बावीस तीर्थंकर चातुर्याम धर्म के प्ररूपक होते हैं। 'चातुर्याम' और 'पंचयाम' भी शब्द-भेद ही हैं। साधना दोनों की समान है। चातुर्याम धर्म में ब्रह्मचर्य को पृथक् याम (महाव्रत) नहीं माना गया, किन्तु ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह के अन्तर्गत ले लिया गया। स्त्री द्विपद परिग्रह में मान्य थी। ब्रह्मचारी स्त्री का त्याग करता है, अतः अपरिग्रह में ब्रह्मचर्य सहज ही आ जाता है। चातुर्याम धर्म का विकास ही पंच महाव्रत धर्म हैं। 

अप्रतिहत प्रभाव भगवान् पार्श्व का प्रभाव मिश्र, ईरान, साइबेरिया, अफगानिस्तान आदि सुदूर देशों में भी गहरा फैला हुआ था। तयुगीन राजा तथा लोग पार्श्व के धर्म की उपासना विशेष रूप से करते । प्रसिद्ध चीनी यात्री हेनसांग ने जब उन प्रदेशों की यात्रा की, तो वहां उसने अनेक निर्ग्रन्थ मुनियों को देखा था। महात्मा बुद्ध का काका स्वयं भगवान् पार्श्वनाथ का श्रमणोपासक था। दक्षिण में भी पार्श्व के अनुयायी पर्याप्त मात्रा में थे।

करकंडु आदि चार प्रत्येकबुद्ध राजा भी भगवान् पार्श्व के शिष्य बने थे। कई इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि महात्मा बुद्ध ने छ: वर्ष तक भगवान् पार्श्व के धर्म शासन में साधना की थी। उस समय के सभी धर्म-सम्प्रदायों पर पार्श्व की साधना-पद्धति का विशेष प्रभाव था ! उनके शासनकाल में आर्य शुभदत्त, आर्य हरिदत्त, आर्य समुद्रसूरि, आर्य केशी श्रमण जैसे प्रतिभाशाली व महाप्रभावक आचार्य हुए। 

निर्वाण

विभिन्न प्रदेशों की पदयात्रा करके भगवान् ने लाखों लोगों को मार्गदर्शन दिया। अंत में वाराणसी से आमलकल्पा आदि विभिन्न नगरों में होते हुए प्रभु सम्मेद शिखर पर पधारे । तेतीस चरम शरीरी मुनियों के साथ अंतिम अनशन किया। एक मास के अनशन में चार अघाति कर्मों को क्षर, कर निर्वाण को प्राप्त किया। देवों, इन्द्रों, मनुष्यों एवं राजाओं ने मिलकर भगवान् के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया।

तीर्थंकर चरित्र



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